कश्मीर ग्राउंड रिपोर्ट-3: धारा 370 हटने के बाद बुरहान वानी के गांव से पहली रिपोर्ट
कश्मीर में बंदी के बीच एशियाविल हिन्दी के रिपोर्टर दिलीप ख़ान बुरहान वानी के गांव पहुंचने वाले पहले पत्रकार हैं. पढ़िए उनकी ग्राउंड रिपोर्ट जिसमें त्राल के लोग ही नहीं पुलिस वाले भी सरकार के फैसले से स्तब्ध हैं.
इस वक़्त हम ठीक उसी जगह पर हैं, जहां 14 फ़रवरी को सीआरपीएफ़ के जवानों पर बहुत बड़ा हमला हुआ था. हाइवे पर अब उस हमले का कोई नामों-निशान तक नहीं है. सब कुछ सामान्य और सहज दिख रहा है. सीआरपीएफ़ का एक काफिला भी ठीक उसी तरह सामने से गुज़रा जैसे 14 फ़रवरी को गुजर रहा होगा. लेकिन, पुलवामा शहर के लोगों के लिए ये हमला आज भी ‘पहेली’ की तरह है. पुलवामा बाज़ार में बैठे फ़ारुख़ के मुताबिक़, “इस बात पर यक़ीन करना मुश्किल है कि कोई गाड़ी लंबे समय से पीछा कर रही थी और सीआरपीएफ़ को इसका अंदाज़ा तक नहीं चला. आप किसी भी काफ़िले के 50 मीटर क़रीब जाकर दिखाइए. गोलियां चल जाएंगी.” इमरान ने कॉन्सपिरेसी थ्योरी दी, “हम लोगों को लगता है कि चुनाव से पहले ये जान-बूझकर कराया गया हमला था.”
वो हाइवे जिस पर 14 फरवरी को सीआरपीएफ काफिले पर हमला हुआ था (फोटो - दिलीप ख़ान)
शहर में इस तरह की राय रखने वाले बहुतेरे हैं. अवंतिपोरा में हमने सीआरपीएफ़ के एक जवान से यही सवाल पूछ दिया तो उन्होंने कहा, “मुंह तोड़ देना चाहिए ऐसे लोगों का. हमारे जवान शहीद हुए और ये लोग कहानियां बना रहे हैं. बुलाओ मादर** को अभी बताता हूं हमले कैसे होते हैं.” पूरी कश्मीर घाटी में स्थानीय लोगों और सुरक्षा बलों की दलीलों में मुठभेड़, मिलिटेंसी और धर-पकड़ को लेकर इसी तरह 180 डिग्री का फर्क दिखेगा. हाइवे से हम बाईं तरफ़ उतर गए. चार दिनों में पहली बार पहाड़ जैसा घुमावदार रास्ता दिखा, लेकिन वो भी बमुश्किल 300 मीटर का रहा होगा. आगे फिर से सपाट मैदान. धान और सेब से लदे हुए खेत.
हाइवे से उतरते ही तस्वीरें बदल गईं हैं. सड़कों पर इक्की-दुक्की गाड़ियां. गांवों में सन्नाटा. दस किलोमीटर चलने पर गिनती के लोग सड़कों पर दिखे. श्रीनगर में जिस तरह की हलचल है, उसे देखकर कोई अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता कि ये दोनों इलाक़े कश्मीर के ही हैं. ये रास्ता त्राल की तरफ़ जाता है. वही त्राल, जहां 2016 में मारे गए मिलिटेंट बुरहान वानी का घर है. हमारी गाड़ी के आगे सीआरपीएफ़ की एक जिप्सी और एक बख़्तरबंद गाड़ी चल रही है. जिप्सी में लटके जवान ने हमें अगले 10-12 किलोमीटर तक ओवरटेक नहीं करने दिया. हम एक सुरक्षित दूरी बनाकर उनके पीछे उनकी रफ़्तार से चलते रहे.
त्राल में दाख़िल होने से पहले लोहे का एक पुल है जिसके दोनों तरफ़ सीआरपीएफ़ के सैकड़ों जवान मुस्तैदी से डटे हुए हैं. बंकर के पीछे तैनात एक बंदूक़धारी जवान ने बीच में उचककर हमें देखा. त्राल की फ़िज़ाओं में सन्नाटा है. बाज़ार ठप. सड़क किनारे खड़े होकर गुज़रने वाली गाड़ियों से लिफ़्ट मांगने की उम्मीद में कुछ लोग पता नहीं कबसे इंतज़ार कर रहे हैं. एक 5-6 साल की बच्ची हाथ में सेब की थैली लेकर सामने वाली गली में मुड़ गई.
त्राल का मुख्य चौराहा (फोटो - दिलीप ख़ान)
बस स्टैंड पर तीन लड़के बैठकर गुफ़्तगू कर रहे हैं. ये त्राल का मुख्य चौराहा है. चौराहा भी नहीं, बल्कि ये पंचवटी है, पांच रास्ते आकर वहां मिलते हैं. पांचों तरफ़ पुलिस और सीआरपीएफ़ वाले डटे हुए हैं. दो बुज़ुर्ग सीआरपीएफ़ वाले के पास बैठकर बीड़ी पी रहे हैं. एक जवान थोड़ा उकताया हुआ दिख रहा है. पानी से चेहरा धोने के बाद वो कुछ चैतन्य हुआ. हमने सोचा था कि यहां के लोगों से बात करेंगे, लेकिन यहां तो कोई दिख ही नहीं रहा. जो बुज़ुर्ग हैं सीआरपीएफ़ के बगल में बैठे हैं उन्होंने ‘हालात ठीक है’ का संक्षिप्त जवाब दिया.
मैं सीधे जवान के पास पहुंचा, “फोटो खींचनी है. मीडिया से हूं.” आईडी वग़ैरह देखकर तफ़्तीश करने के बाद वहां फोटो लेने की इजाज़त मिल गई, लेकिन सुरक्षा बलों की तस्वीरें नहीं खींचने की शर्त पर. दो-चार फोटो खींचने पर रूटीन की तरह दूसरे छोर पर खड़ा एक जवान रोकने आ गया. फिर उन दोनों जवानों के बीच काफ़ी विमर्श हुआ कि फोटो खींचने देना ठीक है या नहीं. तब तक मैं जम्मू-कश्मीर पुलिस के जवानों से हाल-चाल लेने तीसरी सड़क की तरफ़ मुड़ गया. इन दिनों पुलिस के जवान निरीह-से दिखते हैं, गोया किसी सरकारी दफ़्तर में तैनात कोई निजी सिक्योरिटी गार्ड हो. उनसे बंदूक़ें छीन ली गई हैं और हाथ में डंडे पकड़ा दिए गए हैं. दुआ-सलाम के बाद मैंने पूछा, “बंदूक़ें क्यों ले ली गईं आप लोगों से?”
पुलवामा का त्राल कस्बा (फोटो - दिलीप ख़ान)
त्राल थाने में बीते कई महीनों से तैनात एक जवान ने बताया, “इसमें हम क्या बताएं? सरकार का फ़ैसला है. हम तो मुलाज़िम हैं. ऐसा नहीं है कि सबसे बंदूक़ें छीन ली गई हैं. एसएचओ और एसपी साहब के पास हैं. हां, जिनकी ड्यूटी फ़ील्ड में हैं उनकी बंदूक़ें जमा करा ली गई हैं. हम लोगों ने बंदूक़ों में अपने-अपने नाम की पर्ची चिपका रखी है. जब बंदूक़ें वापस मिलेंगी तो कोई फेर-बदल नहीं होगा. सबको अपनी-अपनी गन मिलेगी.”
बात आगे बढ़ने के बाद पड़ोसी ज़िले अनंतनाग से ताल्लुक रखने वाले दूसरे जवान ने बताया, “ट्रस्ट का मामला है इसमें. सरकार को हम लोगों पर भी ट्रस्ट नहीं रहा. जबकि हक़ीक़त ये है कि सेंट्रल फोर्स के मुक़ाबले हम पर ज़्यादा ख़तरा है. हमको तो यहीं रहना है. ये लोग तो आज आए हैं और कल चले जाएंगे. वर्दी की क़ीमत हमने ज़्यादा चुकाई है, लेकिन मोदी सरकार ने हम पर ही भरोसा नहीं किया.”
क्यों नहीं किया? जवाब में उन्होंने कहा, “उनको लगता है कि हम बग़ावत कर देंगे.” सरकार के फ़ैसले से तीनों जवान क्षुब्ध थे. कई मिनटों तक सरकार के फ़ैसले को खरी-खोटी सुनाने के बाद पहले जवान ने कहा, “दुआ कीजिए कि अमन-शांति रहे. हालात बहुत ख़राब हैं. हमारे घर वाले तो इसी बात से डरे हुए हैं कि हमारी पोस्टिंग त्राल में हैं. कोई पुलिस वाला यहां नहीं आना चाहता. ऊपर से सेंटर ने ऐसा ‘उकसाने वाला’ फ़ैसला ले लिया.” अब तक चुप रहे तीसरे जवान ने सिर्फ़ इतना कहा, “बस अल्लाह का रहम रहे. ख़ून-खराबा ना हो.”
मैंने उन्हीं लोगों से बुरहान वानी के घर का पता पूछा. मुझे लगा था कि नाम सुनकर उनका भाव बदलेगा, लेकिन तीनों लगभग निर्विकार भाव से खड़े रहे और एक ने मुझे कहा कि सामने से दाएं मुड़ जाइए. एक किलोमीटर बाद घर है. बाईं तरफ़ ‘उनको’ दफ़्न किया गया है. पुलिस वालों के मुंह से सम्मानजनक ‘उनको’ शब्द मेरे लिए चौंकाने वाला था क्योंकि बुरहान वानी सरकार की नज़र में बहुत बड़ा आतंकवादी था. बुरहान वानी की मौत के बाद घाटी में छह महीनों तक बवाल रहा था और उस दौरान 100 से ज़्यादा लोगों की जानें गई थीं. घाटी में लौट रही शांति 2016 के बाद पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो गई.
2016 में बुरहान वानी के मारे जाने के बाद कश्मीर में व्यापक हिंसा हुई थी (फोटो - दिलीप ख़ान)
हम दाईं ओर नीचे की तरफ़ उतरे. कहीं कोई नहीं दिख रहा. ना गांव के लोग और ना ही सुरक्षाकर्मी. सुरक्षा बलों की तैनाती सिर्फ़ मुख्य सड़क तक ही है, या फिर हो सकता है कि पेट्रोलिंग के लिए बीच-बीच में इधर आते रहते हों. युवाओं का एक झुंड सामने से आ रहा है. हमने हाथ दिया. मीडिया सुनकर वो बिफर पड़े. दिल्ली के मीडियाकर्मियों के लिए कश्मीर में किसी से भी बात करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है. लोग केंद्र सरकार से ज़्यादा ग़ुस्सा ‘इंडियन मीडिया’ से हैं. सबका एक ही आरोप है, “सब दल्ले हैं. झूठ बोलते हैं. कह रहे हैं कि नॉर्मल्सी आ गई है.” हमेशा की तरह काफ़ी मशक्कत के बाद लोग बात करने को तैयार हुए. काली टीशर्ट वाले लड़के ने सवाल से पहले ही बोलना शुरू किया, “हम ये नहीं सहेंगे. ये ब्रैजन ऑक्यूपेशन (सरासर कब्ज़ेदारी) है. बुरहान के सदक़े कह रहा हूं, हम चुप नहीं बैठेंगे.”
दो लड़के सड़क के दोनों तरफ़ संतरी की निगाह से देख रहे हैं, ऐसे जैसे कुछ सूंघ रहे हों. मैंने पूछा, “अभी कैसा माहौल है.” लगभग 24-25 साल के लड़के ने कहा, “माहौल वैसा ही है, जैसा रहता है. इस बार हम लोगों ने बंद कर रखा है. हड़ताल है. अभी तो प्राइवेट गाड़ियां आ-जा रही हैं, जिस दिन ये भी बंद हो जाएंगी तब पता चलेगा.” सबका एक सुर में मानना है कि सरकार के फ़ैसले से मिलिटेंसी फिर से बढ़ेगी. त्राल पुलवामा ज़िले का ही क़स्बा है, जो दक्षिण कश्मीर में आता है. दक्षिणी कश्मीर को मिलिटेंसी का गढ़ माना जाता है. यहां की भौगोलिक बनावट लगभग उसी तरह की है जैसी उत्तरी कश्मीर की. श्रीनगर से दूरी भी लगभग डेढ़ घंटे की है, लेकिन ऐसा क्या है कि बारामूला या फिर कुपवाड़ा की तुलना में इन इलाक़ों में मिलिटेंसी ज़्यादा है?
झुंड में सबसे तज़ुर्बेदार दिख रहे क़रीब 35-36 साल के आदमी ने कहा, “ये तो माहौल का मामला है. यहां लोगों ने एक-दूसरे की देखा-देखी हथियार उठाया. एक मिलिटेंट मरता है, दूसरा पैदा होता है. ये जितना ज़्यादा मारेंगे, मिलिटेंसी उतनी ही बढ़ेगी. इनको अगर हमारी फ़िक्र है तो जाकर कहिए कि फ़ौज हटाए. हमें आज़ाद हवा में सांस लेने दें.”
बुरहान वानी का घर यहां से बमुश्किल 200 मीटर दूर है. 2016 में जब हिज़्बुल कमांडर बुरहान वानी की मुठभेड़ में मौत हुई थी तो लोग बताते हैं कि 6-7 लाख लोग यहां जनाजे में शरीक होने आए थे. कुछ लोग तो संख्या को 10 लाख से भी ज़्यादा बताते हैं. क्या गांव के लोगों पर बुरहान वानी का असर है? इसका सीधा जवाब कोई नहीं देता.
किसी भी लड़के ने नहीं कहा कि वो बुरहान की तरह हथियार उठाएगा. लेकिन, बुरहान वानी और मिलिटेंट्स को लेकर सहानुभूति उन सबके दिल में है. उन लोगों की एक आम राय है कि ‘इंडिया’ ने यहां के लोगों को हथियार उठाने पर मजबूर किया. एक ने बुरहान वानी की तरफ़दारी की, “बुरहान भाई क्या थे? हमारी तरह आम लोग थे. उनके भाई को पहले फौज ने टॉर्चर किया. रोज़-रोज़ टॉर्चर करते थे. कोई अपने भाई को पिटता कब तक देखेगा?” लड़कों के मुताबिक़ अनुच्छेद 370 के मुद्दे ने फिर से चिनगारी सुलगा दी है. आने वाले दिनों में क्या होगा, इसको लेकर अनिश्चितता यहां भी उसी तरह बनी हुई है जैसे कि उत्तर कश्मीर के किसी भी मोहल्ले में.