NEP 2020: उच्च-शिक्षा और स्कूलों में होगा सुधार या पड़ेगी सिस्टम की मार? जानें Education Experts की राय
New Education Policy 2020 को हाल ही में केंद्र सरकार की कैबिनेट ने मंजूरी दी है. करीब 35 सालों से इसका इंतजार हो रहा था, एशियाविल हिंदी ने DU, JNU, जैसे बड़े विश्वविद्यालयों और शिक्षा नीति पर काम वाले संस्थानों के Experts बात कर जानीं नई शिक्षा नीति की खूबियां और खामियां हैं?
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नई शिक्षा नीति 2020 में पूरे एजुकेशन सिस्टम में बड़े बदलाव किए गए हैं. प्राइमरी एजुकेशन पर कुछ नई नीतियों का जहां स्वागत हो रहा है, वहीं, उच्च शिक्षा के भविष्य को लेकर काफी चिंताएं जताई जा रही हैं.
फेडरेशन ऑफ सेंट्रल यूनीवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन्स ने भी कहा है कि सरकार ने एजुकेशन एक्सपर्ट्स की राय नहीं सुनी और मनमाने तरीके से कोरोनावायरस के बीच में नई शिक्षा नीति लागू कर दी है.
एशियाविल हिंदी ने JNU और DU के टीचर्स एसोसिएशन से बात कर न्यू एजुकेशन पॉलिसी पर उनकी राय जानने की कोशिश की. साथ ही शिक्षा नीति पर काम करने वाली सारथी और सेंटर फॉर सिवल सोसाएटी जैसी संस्थाओं से जाना कि उन्हें नई शिक्षा नीति में क्या खूबियां और खामियां नज़र आती हैं और किन सुधारों और ज़रूरत है?
जेएनयू टीचर्स एसोसिएशन, JUNTA के सेक्रेट्री शुरोजीत मजूमदार कहते हैं, जिसके पास साधन हैं, उन्हें अच्छी शिक्षा उपलबध हो पाएगी, बाकियों को नहीं हो पाएगी. इससे गैरबराबरी को बढ़ावा मिलेगा.
उच्च शिक्षा व्यवस्था के प्रशानस के ढ़ांचे में जो बदलाव हो रहे हैं, उनमें दो सबसे खतरनाक बातें हैं, कहने को कहा जा रहा है कि सरकार शिक्षा संस्थानों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहती है, और नई शिक्षा नीति में संस्थानों की स्वयत्ता पर ज़ोर दिया जा रहा है लेकिन ऐसा नहीं है.
खतरनाक़ होगी उच्च शिक्षा की स्थिति?
शुरोजीत मजूमदार नई नीति यह उच्च शिक्षा व्यवस्था को एक खतरनाक़ दिशा में ले जाएगी. केंद्र सरकार के पास रेगुलेशन्स के माध्यम से कई रास्ते रहेंगे जिससे वो तय पाएं कि वहां क्या होगा या नहीं होगा.
उन्होंने आगे कहा उच्च शिक्षा संस्थानों की स्वायत्ता लोकतांत्रिक ढांचे से जुड़ी हुई है. लेकिन आप कह रहे हैं कि उच्च शिक्षा संस्थानों को चलाएंगे बोर्ड, जैसे कंपनियां चलाती हैं, बोर्ड चलाएंगे ही नहीं जब उनका टर्म खत्म होगा तो वही डिसाइड करेंगे कि आगे कौन आएगा? और संस्थान में जो छात्र और अध्यापक हैं उनकी कोई भूमिका नहीं रहेगी किसी विश्वविद्यालय या संस्थानों को चलाने में. किसी उच्च शिक्षा संस्थान में जो स्वायत्ता अध्यापकों को चाहिए, वो नहीं रहेगी.
शिक्षा पर जीडीपी का 6% खर्चा होना चाहिए. 1960 में यह उद्देश्य रखा गया था. 1985 तक इस टार्गेट तक पहुंचने की बात थी. अगर वही उद्देश्य रखा गया होता उसके लिए गंभीरता दिखेगी. नीति में कहा गया है कि छात्रों की सोचने की क्षमता को हम प्रोत्साहित करना चाहते है और हकीकत क्या है कि कोई छात्र सोचे तो उसको आप जेल में बंद कर देते हैं. यह अनुभव से तय होगा कि आप किस उद्देश्य को लेकर गंभीर हैं.
एमफिल को खत्म करने के फैसले पर प्रो. शुरोजीत मजूमदार ने कहा इससे रिसर्च की गुणवत्ता प्रभावित कि हमारे देश में एमए करने के बाद बहुत से लोग तैयार नहीं होते कि वो रिचर्स कर पाए. एमफिल खत्म करना चिंता जनक है.
रिसर्च से पहले बहुत सी क्षमताओं को डेवलप करना ज़रूरी होता है. नेशनल रिसर्च फाउंडेशन, जो सरकार के नियंत्रण में होगी, वह करेगा कि किस विषय पर रिसर्च के लिए पैसा दिया जाएगा, किस विषय पर रिसर्च के लिए नहीं दिया जाएगा. रिसर्च में भी स्वायत्ता की ज़रूरत है. अगर आप कहेंगे कि टीचर की नियुक्ति कैसे होगी, उसका प्रमोशन कैसे होगा, उसे तनख्वाह कितनी मिलेगी, यह सब कुछ एक बोर्ड के हाथ में है, उसका पूरा भविष्य बोर्ड के हाथ में होगा तो वो कैसे स्वायत्त होगा?
लगभग 35 साल के इंतज़ार के बाद नई एजुकेशन पॉलिसी आई है. हमने इस बारे में दिल्ली विश्वविद्यालय टीचर्स एसोसिएशन, डूटा के सेक्रेट्री डॉ राजेंद्र सिंह से बात की. उन्होंने कहा जब से NEP का ड्राफ्ट आया था, हम तभी से इसका विरोध कर रहे हैं. अब ग्रांट बेस्ड एजुकेशन नहीं रह जाएगी, लोन बेस एजुकेशन हो जाएगी, और लोन वापस करने पड़ते हैं.
प्राइमरी एजुकेशन में हुए बड़े बदलाव
वहीं प्राइमरी एजुकेशन में भी बड़े बदलाव किए गए हैं. स्कूल एजुकेशन पर काम करने वाली संस्था सारथी के फाउंडर अंकित अरोड़ा. काफी चीज़ें ऐसी थीं जो मेन स्ट्रीम एजुकेशन में नहीं गिनी जाती थीं, उन्हें पहली बार मेन स्ट्रीम एजुकेशन में लाया गया है. जै
से एजुकेशन फॉर स्पेशली गिफ्टेड चिल्ड्रन या एजुकेशन फॉर लाइफ स्किल्स, या जो 21वीं सदी से स्किल्स के लिए ज़रूरी होते हैं. पहले ये स्किल किसी पॉलिसी में नहीं आते थे लेकिन अब इन्हें पहली बार पॉलिसी में रखा गया है.
फाउंडेशन स्टेज बनाई गई है, जिसमें तीन स्टेज आपके प्राइमरी के होंगे. स्कूल में हर स्टेज में बच्चों के अलग तरह से केटर करने के लिए एजुकेटर्स को भी मदद मिलेगी. सारथी फाउंडेशन वंचित तबकों के बच्चों की पढ़ाई पर भी काम करती है.
हमने उनसे पूछा कि पेरेंट्स के लिए भी एक शुरूआत के तीन साल तक के लिए एक प्रोग्राम रखा गया है, इसका क्या असर पड़ेगा? उन्होंने कहा कि रिसर्च यह बताती है कि जहां पेरेंट्स बच्चों की पढ़ाई में शामिल होते हैं, वहां बच्चों की परफॉर्मेंस अच्छी रहती है. इससे शुरूआती स्टेज में ही बच्चे के विकास पर अच्छे से काम किया जा सकेगा.
सुधार जो बाक़ी रह गए...
सेंटर फॉर सिविल सोसायटी, सीसीएस के एसोसिएट डायरेक्टर अविनाश चंद्रा ने लंबे इंतजार के बाद आई नई शिक्षा नीति का स्वागत किया लेकिन कहा कि नीतियां बनाने में सभी स्टेकहोल्डर्स को शामिल किया जाना चाहिए, जो इस बार भी नहीं हो पाया है. बहुत से ऐसे स्कूल और ऑर्गनाइज़ेशन हैं जिनका शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा हिस्सा है, जैसे बजट प्राइवेट स्कूल, लेकिन उनसे नीतियां बनाते हुए ना उनसे कोई बात गई, ना उनसे कोई सलाह ली गई. मुझे लगता है कि इसमें सुधार की ज़रूरत है.
साथ ही अविनाश ने कहा कि नई शिक्षा नीति में पांचवी तक मातृ भाषा में और लोकल भाषा में शिक्षा देने की बात की गई है. यह हमेशा से विवाद का मुद्दा रहा है.
2014 में सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला आया था, जिसमें कहा गया था कि अपने बच्चों को किस भाषा माध्यम में पढ़ाना है यह पेरेंट्स का अधिकार और आज़ादी है. आज भूमंडलीकरण का दौर है, भारत में इतनी भाषाएं हैं, बहुत से पेरेंट्स का तबादला होता रहता है.
ऐसे में बच्चा कितनी भाषाओं में अपनी शिक्षा पूरी करेगा? हिंदी भाषी प्रदेश में अधिक परेशानियां नहीं हैं लेकिन बंगाली, गुजराती और कन्नड़ अगर दूसरे राज्यों में जाएंगे तो लोकल भाषा में पढ़ाने की वजह से बहुत सी समस्याएं आएंगी.
हमने अविनाश से पूछा कि 10+2 का सिस्टम बदला जाना स्कूली शिक्षा को कैसे प्रभावित कर सकता है? उन्होंने कहा हमे यह ध्यान रखना चाहिए कि हमें नीतियों की ज़रूरत क्यों पड़ रही थी? पिछले तीन दशक में सरकारी शिक्षा के स्तर में रुकावट हुई, प्राइवेट स्कूल आए, फीस के लिए समस्या रही, लेकिन सबसे बड़ी समस्या रही कि क्वालिटी एजुकेशन कम हो रही थी. सरकार को अपना फोकस इसी पर रखना चाहिए था. व्यक्तिगत तौर पर मैं 10+2 सिस्टम बदलने का कोई वैल्यू एड होता नहीं देखता हूं.
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