राजनीतिक हिंसा के शिकार लोग और परिवार दर्ज करा रहे हैं अपना दर्द
देश के माओवाद से प्रभावित इलाको में माओवादियों या सरकार प्रायोजित हिंसा में मारे गए या प्रताड़ित लोगों का तैयार किया जा रहा है रजिस्टर.
केंद्रीय गृह मंत्रालय के लेफ्ट विंग एक्स्ट्रीमिजम डिविजन के मुताबिक छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, बिहार, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और केरल वामपंथी उग्रवाद से पीड़ित हैं. इन उग्र वामपंथियों को माओवादी या नक्सलवादी के नाम से जाना जाता है. सरकार के मुताबिक 2004 से 2019 के बीच इन माओवादियों या नक्सलियों ने देश के अलग-अलग हिस्सों में 8 हजार 197 लोगों की हत्या की है. सरकार के मुताबिक मारे गए अधिकांश लोग आदिवासी थे. यह तस्वीर का एक पक्ष है. इसका एक दूसरा पहलू सरकार प्रायोजित हिंसा. इसमें भी लोग मारे गए हैं और मारे जा रहे हैं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, छत्तीसगढ़ में चलाया गया सलवा जुड़ुम नाम का अभियान. इसमें भी लोग मारे गए थे और गांव के गांव उजाड़ दिए गए थे.

माओवाद से पीड़ित इन राज्यों में माओवादियों और राज्य प्रायोजित हिंसा में मारे गए लोगों और पीड़ित लोगों का पता लगाने का एक अभियान शुरू किया गया है. छत्तीसगढ़ में नई शांति प्रक्रिया के नाम से चलाए जा रहे एक अभियान ने इस कार्यक्रम को शुरू किया है. इसे नाम दिया गया है, पीड़ितों का रजिस्टर : बस्तर की पीड़ा, पीड़ितों की जुबानी.
नई शांति प्रक्रिया के संयोजक शुभ्रांशु चौधरी ने 'एशियाविल हिंदी' को बताया कि भारत में इस तरह की कोशिश पहली बार की जा रही है. उन्होंने बताया कि इस तरह की कोशिश कोलंबिया और नेपाल समते दुनिया के करीब के एक दर्जन देशों में पहले ही हो चुकी है. उन्होंने बताया कि कोलंबिया में शांति लाने में इस तरह की कोशिश की प्रमुख भूमिका रही.
राजनीतिक हिंसा के शिकार
भारत में इस तरह की राजनीतिक हिंसा के पीड़ितों की आपबीती को सामने लाने के लिए एक टेलीफोन नंबर (7477288333) जारी किया गया है. पीड़ित व्यक्ति या परिवार को इस नंबर पर मिस्ड कॉल देनी होगी. इसके बाद फोन करने वाले व्यक्ति को फोन कर उसकी कहानी को दर्ज किया जाएगा.
पीड़ित लोग अपनी बात कहने के लिए तीन भाषाओं हिंदी, गोंडी और हल्बी का विकल्प दिया गया है. उन्हें अपनी बात तीन मिनट में पूरी करनी होगी. इस टेलीफोन नंबर पर लोगों ने अपनी कहानी को दर्ज कराना शुरू भी कर दिया है.

इस तरह से रमेश मरकाम ने अपनी कहानी बयान की है. वो बताते हैं कि 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार ने सलवा जुडूम के नाम से एक अभियान चलाया. सलवा जुडूम का हिंदी अर्थ होता है, 'शांति का कारवां'. सलवा जुड़ुम के कारण करीब 55 हज़ार आदिवासियों को घर छोड़कर पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में विस्थापित होना पड़ा.
मरकाम रमेश बताते हैं कि 2005 या 2006 की एक सुबह 4 बजे उनके गांव में पुलिस वाले आए. इससे डर कर गांव के सारे पुरुष भाग कर जंगल और पहाड़ों में छिप गए. पुलिस के जाने के बाद जब पुरुष लौटे तो महिलाओं ने उन्हें बताया पुलिस ने सभी को सलवा जुड़ुम में शामिल होने कहा है. शामिल न होने पर गोली मार देने की धमकी भी दी है. लौटने से पहले पुलिस ने 6 घरों को आग के हवाले कर दिया था. इसके बाद गांववाले गांव छोड़ पहाड़ों और जंगलों में ही झोपड़ी बना कर रहने लगे.
पुलिसिया अत्याचार
रमेश ने बताया है कि पुलिस का दखल बढ़ने लगा था. पुलिस ग्रामीणों को वर्दी पहनाकर मार देती थी. मारने के बाद हाथ में हथियार थमा दिया जाता था. पुलिस के बयानों में वह मुठभेड़ में मारा गया नक्सली होता था. एक दिन फिर पुलिस गांव में आई और पूरे गावं को आग के हवाले कर दिया. इस दौरान पुलिस की गोली से एक ग्रामीण की मौत भी हुई.
वो बताते हैं कि इस दौर में पुलिस अगर किसी ग्रामीण पर केस फ़ाइल जरती थी तो वह अपने को सुरक्षित महसूस करता था. क्योंकि पुलिस द्वारा मारे गए ज्यादातर लोगों पर कोई केस नहीं होता था. रमेश ने इंजराम और दोरनापाल के आसपास लोगों को नदी में फेंकने कि घटना का भी दावा किया. वे बताते हैं कि पुलिस ग्रामीणों को नदी के पास ले जाया करती थी. बलपूर्वक उन्हें बोरे में ठूंस दिया जाता था, बोरे की सिलाई कर उन्हें नदी में फेंक दिया जाता था.
रमेश ने भी इस बर्बरता को करीब से देखा है. उनके दो मामा को पुलिस ने उठाया और दोनों को पुआल में डालकर जला दिया था.

वहीं जोगा मंडावी अब तेलंगाना के कन्नापुरम में रहते हैं. वह 2006 से अपना गांव छोड़कर यहां रह रहे हैं. उनके के दो बड़े भाई आज भी छत्तीसगढ़ के अपने गांव में रहते हैं. जोगा के मुताबिक सलवा जुडूम के दौरान उनके भाई और जीजा को पुलिस ने नक्सली बताकर मार दिया. इस घटना में पुलिस ने कुल 6 लोगों को मारा था. इसमें तीन उनके गांव के थे बाकी तीन दूसरे गांव के.
कुछ ऐसी ही कहना मनोज पोडियाम की है. 3 फरवरी 2018 की रात करीब साढे 10 बजे उन्होंने अपने घर के बाहर शोरगुल सुना. उन्हें लगा कि कोई उनके घर के बाहर अपनी गाड़ी पार्क कर रहा है. वो अपने बिस्तर से उठे और पूछा, कौन है. मनोज पोडियाम के ये अंतिम शब्द थे, क्योंकि उनके घर के बाहर मौजूद माओवादियों ने उन पर गोली की बौछार कर उनकी हत्या कर दी. मनोज की पत्नी सविता पोडियाम के मुताबिक माओवादी उनके शव के पास एक लाल झंडा छोड़कर गए थे.
राजनीतिक हिंसा के शिकार लोग सामने आकर अपनी कहानी दुनिया के सामने रख रहे हैं. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इस तरह से कितने लोग सामने आते हैं और अपनी कहानी दुनिया को सुनाते हैं.
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