नरेन्द्र मोदी विरोधी पार्टियों पर लगातार हमलावर रहते हैं, वो अपने बारे में भी बढ़-चढ़कर दावे करते रहते हैं. आख़िर उनका मनोविज्ञान क्या है? किस मनोवैज्ञानिक हालात में वो झूठ तक का सहारा लेने से नहीं चूकते.
“जो झूठ बोलता है, उसके लिए पहली शर्त होती है कि उसकी मेमोरी पावर तेज़ होनी चाहिए. लेकिन वो (राहुल गांधी) एक दिन एक आंकड़ा बोले, अगले दिन दूसरा, उनकी झूठ की फैक्ट्री उन्हें पकड़ा देती है. मेमोरी पावर कम होने के कारण वो पकड़े जाते हैं.”
नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री (31 मार्च 2019)
दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में ‘मैं भी चौकीदार’ कार्यक्रम के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर तंज कसते हुए नरेन्द्र मोदी ने ये बयान दिया था. इस बयान में राहुल गांधी पर झूठ बोलने के साथ-साथ ‘याददाश्त कम’ होने का भी आरोप है. अगर भाषाई व्याख्या करें तो ऐसा लगता है नरेन्द्र मोदी को मालूम है कि ‘तेज़ मेमोरी’ के ज़रिए झूठ को आसानी से समाज में चलाया जा सकता है.
[ये भी पढ़ें: दरअसल मोदी डरते हैं]
जानी-मानी मनोविश्लेषक बेला डिपोलो ने तीन दशक पहले बच्चों के सामाजिक विकास में झूठ को एक ज़रूरी कौशल करार दिया था. इससे पहले और इसके बाद झूठ पर सैकड़ों शोध हो चुके हैं और इसकी कई तरह से व्याख्या भी हुई. कुछ मनोविश्लेषक इसे ‘समाज के नैतिक ताने-बाने के लिए ख़तरा’ करार देते हैं, तो कुछ इसे ‘ज़रूरी हुनर’ मानते हैं. मनोविज्ञान में अब ये साबित हो गया है कि दुनिया का कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है जो झूठ के बग़ैर अपनी ज़िंदगी काट दे.
लेकिन, झूठ को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने का मनोविज्ञान एक अलग क़िस्म की दुनिया रचती है. झूठ की बदौलत विरोधियों की छवि को तार-तार करने से लेकर अपने अपराध पर परदा डालने का चलन ज़माने से चला आ रहा है. यही वजह है कि अपराध और क़ानून की दुनिया में आगे चलकर किसी अपराधी का ज़ुर्म क़बूलवाने के लिए झूठ पकड़ने वाली मशीन बनाई गई. जब तेज़ मेमोरी के बल पर कोई व्यक्ति बेहद सतर्कता के साथ किसी झूठ को अपने भीतर इस तरह पैबस्त कर ले कि वो आदतन उसे तथ्य के रूप में इस्तेमाल करने लगे, तो ऐसे व्यक्ति का झूठ पकड़ना सच में मुश्किल हो जाता है. इस लिहाज़ से देखें तो नरेन्द्र मोदी ने ‘तेज़ मेमोरी’ वाली जो दलील दी है, उसमें अकादमिक सच्चाई झलकती है.
[ये भी पढ़ें: OBC मोदी की पहचान नहीं, ढाल है]
सामाजिक विज्ञान में लोगों के व्यवहार का ही सैद्धांतीकरण किया जाता है. ख़ासकर कॉग्नेटिव (संज्ञानात्मक) व्यवहार के मामले में बनी-बनाई किसी थियरी के मुताबिक़ दुनिया नहीं चलती, बल्कि दुनिया के चलन को पकड़कर थियरी बनाई जाती है. फिर दुनिया को उस थियरी पर कसा जाता है.
नरेन्द्र मोदी ने सैद्धांतीकरण नहीं किया है, बल्कि उनके वाक्य से वो समझदारी झलकती है, जिनको आधार बनाकर मनुष्य की उलझी हुई गुत्थियों को मनोविज्ञान सुलझाता है. यानी मोदी ख़ुद में एक सब्जेक्ट हैं. वो जानते हैं कि झूठ बोलने के लिए किन तैयारियों की दरकार होती है. वो सचेत हैं. वो झूठ को ‘ज़रूरी हुनर’ बनाने के लिए ‘ज़रूरी तैयारियों’ को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते. बचपन में मगरमच्छ पकड़ने से लेकर ‘एंटायर पॉलिटिकल साइंस’ की पढ़ाई तक की दावेदारी में वो कुछ ज़रूरी ‘तथ्य’ हमेशा पेश कर सकते हैं. वो तथ्य आपके लिए यक़ीन लायक़ हैं या नहीं, इससे तथ्य पेश करने वाले की दावेदारी पर कोई फर्क नहीं पड़ता. पोस्ट ट्रूथ दौर में सबका अपना-अपना तथ्य बन गया है. उनके समर्थक उनके किसी भी ‘तथ्य’ को सबसे पुख़्ता मानकर इस तरह प्रचार करते हैं कि वो किंवदंतियों में तब्दील हो जाए.
आइकन में तब्दील हो चुका कोई व्यक्ति अगर जान-बूझकर ग़लत सूचना (डिसइनफॉर्मेशन) देता है तो अंतिम व्यक्ति तक पहुंचते-पहुंचते उसकी तथ्यपरकता लगातार कमज़ोर होती जाती है. जो व्यक्ति सच्चाई से वाकिफ़ नहीं है, वो उस डिसइनफॉर्मेशन को सबसे ठोस तथ्य के रूप में रिसीव करता है. फिर वो जब उसी सूचना को आगे बढ़ाता है तो उसे मालूम नहीं होता कि वो किसी झूठ को प्रसारित कर रहा है. इस तरह, डिसइनफॉर्मेशन अगले चरण में मिसइनफॉर्मेशन में तब्दील हो जाता है. ये क्रम तब तक ‘सच’ के रूप में आगे बढ़ता रहता है, जब तक उसका पर्दाफ़ाश ना हो जाए.
[ये भी पढ़ें: नरेन्द्र मोदी की पात्रता की पड़ताल]
दुनिया के कई बड़े नेताओं ने संचार के इस मनोविज्ञान को अपने पक्ष में इस्तेमाल किया है. इस दौरान कई शब्दों ने अपना स्वाभाविक अर्थ खो दिया. मिसाल के लिए प्रोपेगैंडा का इस्तेमाल पहले सकारात्मक तौर पर होता था. जोसेफ़ गोएबल्स को जब हिटलर ने प्रोपेगैंडा मंत्री बनाया था तो गोएबल्स का काम था सरकारी काम-काज, नीतियों और कूटनीतियों का प्रचार करना. लेकिन, गोएबल्स ने प्रचार के क्रम में जो कुछ किया, उससे पूरी दुनिया अब वाकिफ़ है. उनका कथन ‘एक झूठ को सौ बार बोलो तो वो सच हो जाता है’ ने झूठ के मनोविज्ञान को पकड़ने के लिए आधुनिक दौर में एक नया सिरा दिया.
‘सौ बार दोहराने’ के लिए ‘तेज़ मेमोरी’ बहुत ज़रूरी है. तेज़ याददाश्त के बग़ैर कोई किसी घटना या ‘तथ्य’ को बार-बार नहीं दोहरा सकता. इसके लिए तैयारियों की दरकार होती है. झूठ बोलने के लिए निपुणता की ज़रूरत पड़ती है. ऐसा नहीं है कि गोएबल्स अपनी डिज़ाइन में पकड़े नहीं गए. वो पकड़े गए और ख़ूब पकड़े गए. यही वजह है कि उनके कार्यकाल के बाद से आम जनमानस में प्रोपेगैंडा शब्द का नकारात्मक अर्थ भर गया और अब लोग आम तौर पर प्रोपेगैंडा को ‘झूठ’ के पर्यायवाची के तौर पर इस्तेमाल करने लगे हैं. अकादमिक तौर पर ये भले ही ग़लत हो, लेकिन ऐसा हुआ.
[ये भी पढ़ें: मोदी है तो मुमकिन है]
सार्वजनिक जीवन में जब किसी व्यक्ति को दिन भर में कई बयान/भाषण देने पड़े तो ‘चूक’ की गुंजाइश बनी रहती है. ये चूक कई बार छोटी हो सकती है, कई बार भारी. लेकिन आम तौर पर तथ्यात्मक चूक को कॉग्नैटिव (संज्ञानात्मक) सहमति हासिल नहीं रहती. लेकिन, जब किसी ‘तथ्य’ पर विस्तार से अपनी बात रखी जाए तो कॉग्नैटिव सहमति के साथ ही ऐसा किया जाता है.
मसलन, नरेन्द्र मोदी ने विश्व आर्थिक मंच के भाषण में बीते साल भारतीय मतदाताओं की संख्या ‘600 करोड़’ बता दिया. पहली नज़र में ही ये चूक का मामला लगता है. अपने ‘समर्थन क्षेत्र’ का दायरा बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने का मनोविज्ञान इससे भले ही झलकता हो, लेकिन ये डिज़ाइन किया गया वाक्य नहीं लगता, लेकिन बीते दिनों उन्होंने कई ऐसी बातें कहीं जो तथ्यात्मक तौर पर पूरी तरह झूठ साबित हुईं. दिलचस्प ये है कि उन वाक्यों से साफ़ लगता है कि वो बेहद सोच-समझकर और अपने अंत:मन से सहमति पाकर दिए गए बयान थे.
झूठ का एक सामान्य मनोवैज्ञानिक सिद्धांत है जिसमें बताया गया है कि कैसे कोई व्यक्ति ‘अपनी आलोचना को ध्वस्त करने और सकारात्मक छवि बनाने’ के लिए झूठ का सहारा लेता है. इसमें झूठ के साथ-साथ गल्प भी शामिल हो सकते हैं. चाहे वो गल्प ‘घने बादल और रडार’ वाला हो या फिर ‘1987-88 में डिजिटल कैमरे से फोटो खींचकर ईमेल करने’ का हो.
डिजिटल कैमरे और ईमेल के मामले में नरेन्द्र मोदी ने तालकटोरा स्टेडियम में झूठ पर दिए गए अपने ही ज्ञान से डिग गए. गल्प, अतिशयोक्ति और झूठ जब किसी व्यक्तित्व का हिस्सा बनने लगे तो ‘तेज़ याददाश्त’ हमेशा साथ नहीं देती. जब कोई ‘नया तथ्य’ पहली बार सामने रखा जाता है तो उसे याददाश्त की किसी पूर्व परंपरा का सहारा नहीं मिलता. परंपरा वहीं से बननी शुरू होती है ताकि आगे जब उस ‘तथ्य’ को दोहराया जाए, तो वो पहले बयान के मुताबिक़ लगे.
पहले बयान में ही जब तथ्य का पर्दाफ़ाश हो जाए तो इससे दो ख़तरे रहते हैं. पहला, ताज़ी टिप्पणी पर हमला बढ़ने का और दूसरा, उससे पहले दिए गए किसी भी बयान पर शक के बादल मंडराने का. इससे व्यक्तित्व की समूची विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आ जाती है. नरेन्द्र मोदी ने बार-बार ख़ुद को इस स्थिति में डाला है. ये जानते हुए डाला है कि झूठ के लिए ‘तेज़ मेमोरी’ की दरकार होती है.
(हमें फ़ेसबुक, ट्वीटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो करें)
Related Stories
कांग्रेस ने गुजरात से ही क्यों किया प्रचार का आग़ाज़
मोदी के वर्धा दौरे पर गांधीवादी: गांधी और मोदी दो अलग छोर पर खड़े हैं
रफ़ाल: सत्ता पक्ष और विपक्ष में बयानबाजी तेज
OBC मोदी की पहचान नहीं, ढाल है