सर सैयद अहमद ख़ानः हिंदु-मुस्लिम एकता के ऐसे प्रतीक, जिनके बारे में कई भ्रांतियां बनाई गईं
जब सर सैयद ने गाजीपुर में एक मदरसा खोला तो उन्होंने राजा देव नारायण सिंह और मौलाना मुहम्मद फसीह को आधारशिला रखने के लिए आमंत्रित किया. यह हिंदुओं के प्रति उनकी आत्मीयता और सम्मान का प्रतीक था.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी शुरू से ही धर्मनिरपेक्ष गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतिनिधित्व करता आ रहा है और एएमयू समुदाय शिक्षा के इस महान मीनार की पहचान बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है.
सर सैयद अहमद ख़ान ने देश में हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया और सारा जीवन समुदाय के शैक्षिक उत्थान और एक आधुनिक भारत के बहुलवादी समाज को मज़बूत बनाने के लिए काम किया. सर सैयद अहमद खान हिंदू-मुस्लिम एकता के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण तथा अति प्रभावशाली नाम है. हालांकि इस संबन्ध में उनके योगदान पर लोगों में मतभेद पाए जाते हैं.
इसमें कोई संदेह नहीं कि सर सैयद इस्लाम के एक सच्चे अनुयायी थे और उन्होंने अपना पूरा जीवन मुस्लिम समुदाय को बेहतर शिक्षा प्रदान करने तथा पश्चिमी दुनिया के साथ उनका तालमेल बनाए रखने पर ज़ोर दिया. बारबरा डी मेटकाफ ने उन्हें “मुस्लिम बौद्धिक पुनर्जागरण के पितामह” बताया है. मुस्लिम समुदाय की सेवा के लिए उनके समर्पण ने उन्हें “इस्लाम धर्म में प्रथम आधुनिकतावादी संस्था का संस्थापक” का दर्जा दिलवाया.
सर सैयद को इस बात पर दृढ़ विश्वास था कि उनके समुदाय के लिए तबाह हो जाने से बचने के लिये एकता अत्यंत महत्वपूर्ण है और यह एकता पश्चिम तथा हिंदुओं दोनों के साथ होनी चाहिए. उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली की खूबियों और दोषों दोनों को समझा और उनपर यह स्पष्ट हो गया कि मौजूदा परिस्थिति में उनके समुदाय को अपना अस्तित्व बनाये रखने और सफल होने के लिए जीवन के नए मापदंडों को स्वीकार करना होगा.

हालांकि, पश्चिमी सभ्यता की स्थापना विज्ञान की खोजों, व्यावहारिक सिद्धांतों तथा बौद्धिक ज्ञान पर हुई थी. कई मायनों में, यह विचारधारा पारंपरिक मुस्लिम सोच से अलग थी और यही कारण था कि कई धार्मिक विद्वानों ने सर सैयद को पश्चिमी संस्कृति को स्वीकार करने के लिए “काफिर” करार दिया. परन्तु सर सैयद अपने विचार पर डटे रहे और हमेशा अपने समुदाय को पश्चिमी दुनिया से हाथ मिलाने के लिए प्रेरित करते रहे.
हिन्दु समुदाय के प्रति आत्मीयता
इसी प्रकार, सर सैयद ने हिंदुओं के साथ हाथ मिलाने पर बहुत ज़ोर दिया. उनके परिवार के हिंदुओं के साथ घनिष्ट संबंध थे. सर सैयद के नाना नवाब फरीदुद्दीन ख़ान ने अपनी संपत्ति को अपने बेटों में बराबर बांटा और एक भाग अपने हिंदू दीवान लाला मलूक चंद को भी दिया. सर सैयद ने हमेशा होली और बसंत जैसे हिंदू त्योहारों में भाग लिया.
जब सर सैयद ने गाजीपुर में एक मदरसा खोला तो उन्होंने राजा देव नारायण सिंह और मौलाना मुहम्मद फसीह को आधारशिला रखने के लिए आमंत्रित किया. यह हिंदुओं के प्रति उनकी आत्मीयता और सम्मान का प्रतीक था.
जब सर सैयद ने पूर्व उल्लेखित साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना की तो उन्होंने सुनिश्चित किया कि इसका धार्मिक संबद्धता से कोई लेना-देना नहीं होगा. वह चाहते थे कि समाज का वैज्ञानिक वर्ग एक गैर-धार्मिक और सहयोगी परम्परा में विकसित हो. यह विज्ञान और ज्ञान के प्रति उनके समर्पण का प्रतीक है. वह कभी पक्षपाती नहीं रहे और चाहते थे कि सभी को ज्ञान की सुंदरता से लाभ मिले.
सर सैयद ने 27 जनवरी 1884 को गुरदासपुर में एक सभा को संबोधित करते हुए कहा, “ऐ हिंदुओ और मुसलमानो! क्या तुम भारत के अलावा किसी अन्य देश के बासी हो? क्या तुम इसी मिट्टी पर नहीं रहते और क्या तुम इसी के नीचे दफन नहीं होते या इसी के घाटों पर तुम्हारा अंतिम संस्कार नहीं किया जाता? यदि तुम इसी भूमि पर रहते हो और यहीं मरते हो तो जान लो की हिंदू और मुस्लिम मात्र एक धार्मिक शब्द हैं और सभी हिंदु, मुस्लिम और ईसाई जो इस देश में रहते हैं, एक राष्ट्र हैं.”

विवाद
सर सैयद के हिन्दुओं के साथ सौहार्दपूर्ण संबन्ध रखने के प्रयासों के बावजूद बहुत से लोगों का यह मानना कि वह हिंदुओं के खिलाफ थे और भारत को दो देशों में विभाजित करना चाहते थे, पूर्णतः असत्य है. इस भ्रांति के उत्पन्न होने के कई कारण हैं. शरीफ अल मुजाहिद ने अपने शोधपत्र “सर सैयद अहमद खान और भारत में मुस्लिम राष्ट्रवाद” में लिखा है कि सर सैयद “मुस्लिम राष्ट्रवाद” के जनक थे.
लोगों का मानना है कि यदि सर सैयद ने मुस्लिम पुनर्जागरण की आधारशिला रखने में महत्वपूर्ण भूमिका न निभाई होती तो जिन्ना (पाकिस्तान के संस्थापक) या अल्लामा इकबाल (महान कवि, दार्शनिक तथा विचारक) पैदा नहीं होते.
सच्चाई यह है कि सर सैयद ने मुसलमानों के विकास एवं उत्थान के लिये विशेष प्रयत्न किये और इसे ही कुछ लोगों ने गलती से यह समझ लिया कि वह हिंदुओं के विरूद्ध थे. सर सैयद केवल तात्कालिक परिस्थितियों और सांस्कृतिक और वैचारिक चुनौतियों के अनुरूप अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे. कार्ल मार्क्स ने एक बार कहा था कि “लोग अपना इतिहास स्वयं बनाते हैं, परन्तु वह ऐसा स्वयं द्वारा चुनी गई परिस्थितियों में नहीं करते बल्कि वह ऐसा अतीत द्वारा परोसी गई परिस्थितियोंवश करते हैं.
मुस्लिम समुदाय के आर्थिक पिछड़ेपन और अल्प संख्या के कारण ऐसा कोई तरीका नहीं था जिससे मुस्लिम आबादी चुनाव में हिंदुओं के विरूद्ध अच्छा प्रदर्शन कर पाता.