सोनभद्र हत्याकांड : आदिवासी मारे गए जमीन के लिए, मिली पुलिस चौकी
उम्भा गांव में मारे गए आदिवासियो के परिजन लंबे वक्त से जमीन का पट्टा मिलने का इंतजार कर रहे हैं लेकिन उसके बदले उन्हें मिली है पुलिस चौकी और सड़क.
पिछले पांच दिनों से अखबार से लेकर टीवी तक, राजनेताओं से लेकर जनता तक, आईएएस लेकर सफाईकर्मी तक, अमीर से लेकर गरीब तक, हर किसी के जुबान पर सोनभद्र जिले के मूर्तिया गांव (ग्राम पंचायत) का नाम तैर रहा है. इसकी वजह भी है. बीते बुधवार की दोपहर यहां खूनी संघर्ष हुआ था, जिसमें दस लोगों की मौत हो गई और करीब दो दर्जन लोग घायल हैं.आइए आपको उम्भा गांव लेकर चलते हैं, जो सोनभद्र जिले के मूर्तिया ग्राम पंचायत का हिस्सा है.
प्राइवेट बस ही है अकेला साधन
सोनभद्र जिले का मुख्यालय राबर्ट्सगंज है. यहां से करीब 30 किलोमीटर दूर घोरावल है. मूर्तिया गांव जाने के लिए आपको इसी रास्ते से होकर जाना पड़ता है. लगभग पौने दो घंटे निजी बस में सफर के बाद हम घोरावल पहुंचते हैं. प्राइवेट बस इसलिए क्योंकि यहां तक कोई सरकारी बस नहीं आती है और ना ही कोई ऑटो है. घोरावल जाने का एकमात्र साधन बस ही है.
आप सोच रहे होंगे कि 30 किलोमीटर की सफर के लिए पौने दो घंटे का समय? चूंकि यहां पहुंचने का एकमात्र साधन बस है लिहाजा उसे हर पांच मिनट पर रुकना होता है. सवारियों को उतारने और चढ़ाने के लिए बस हर नुक्कड़ पर रुकती है. इसलिए सिर्फ महज 30 किलोमीटर की दूरी तय करने में पौने दो घंटे का समय लग जाता है.
35 किलोमीटर की सफर के लिए नहीं है कोई साधन
अब हम घोरावल पहुंच चुके हैं. घोरावल थाना भी है और यहां सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र भी है. सुबह के नौ बजने वाले हैं. हम यहां से उम्भा गांव पहुंचने लिए एक निजी गाड़ी करते हैं क्योंकि उम्भा गांव यहां से 35 किलोमीटर दूर है. आवागमन का दूसरा साधन नहीं है.
गांव जाने का रास्ता
गांव में जाने के लिए सिंगल रुट पक्की सड़क है. सड़क के दोनों तरफ बिजली के खंभे लगे हैं लेकिन बल्ब लगा हुआ नहीं दिखता है. रास्ते में आपको खजूर, शीशम, आम और बबूल के पेड़ बहुतायत में दिखते हैं. छोटी-छोटी झाड़ियां भी दिखाई देती हैं. सड़क पर पुलिस और प्रशासन की गाड़ियों के आलवा एकाध ट्रक और कुछ मोटरसाइकिल दिख जाती हैं.
लगभग 25 किलोमीटर के सफर के बाद अब सड़क टूटी-फूटी मिल रही हैं. रास्ते में दूर-दूर तक कोई घर दिखाई नहीं दे रहा है. जहां तक नज़र जा सकती है केवल खेत ही खेत हैं. हां, खेत में छोटी-छोटी झोपड़ी बनी हुई है, जो शायद किसानों की है.
बन रही है उम्भा गांव की सड़कें
अब हम उम्भा गांव पहुंचने ही वाले हैं. लेकिन दूर से ही गांव की सड़क बनती हुई दिख रही है. यहां पर सड़कों के किनारे लाइट भी लगाई जा रही हैं. यहां पुलिस का पहरा लगा हुआ है. ये पहरा पिछले कई दिनों से है. आज (रविवार) कुछ ज्यादा है क्योंकि प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आज यहां आ रहे हैं. आज इस गांव के लोगों से ज्यादा यहां पर पुलिस और प्रशासन के लोग हैं.
गांव में बन रही सड़क
गांव में चहल-पहल (ग्रामीण और पुलिस प्रशासन की) है. लेकिन फिर भी सन्नाटा सा छाया हुआ है. हर तरफ उदासी है. तभी कहीं से कानों में रोने की आवाज़ आती है. वहां जाकर देखने पर मालूम हुआ कि ये वही परिवार हैं, नरसंहार में जिनके लोग मारे गए हैं. यहां कुछ महिलाएं हैं, जिनकी आंखें भी रोते-रोते सूख चुकी हैं. वो कुछ बोल तो नहीं रही है लेकिन उनकी आंखें हजारों सवाल कर जाती हैं.
सरकारी सुविधाओं से कोसों दूर है ये गांव
उम्भा गांव की आबादी करीब एक हज़ार है. इनमें लगभग 600 वोटर हैं। यहां ज़्यादातर गोंड आदिवासी रहते हैं. कुछ घर दलितों के भी है. यहां खेती-मजदूरी ही आजीविका का एकमात्र साधन है. इस गांव में अभी तक किसी को कोई आवास नहीं मिला है. ना ही कोई शौचालय है. ना ही यहां किसी को वृद्धा पेंशन मिलती है.
नहीं है कोई स्वास्थ्य केंद्र
आवास और शौचालय की कमी के अलावा यहां पर कोई भी स्वास्थ्य केंद्र नहीं है. किसी का तबीयत खराब होने पर घोरावल सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र जाना पड़ता है, जो यहां से 35 किलोमीटर दूर है और वहां जाने का कोई साधन नहीं हैं.
इस बारे में गांव के बुजुर्ग रामपनी बताते हैं, 'सुबह एक गाड़ी जाती है और शाम को आती है. उसी गाड़ी से सफर करते हैं. अगर दिन को कोई काम पड़ जाता है या कोई इमरजेंसी होती है तो किसी से दोपहिया वाहन मांगा जाता है. हालांकि इस गांव में कुल पांच या छह दोपहिया वाहन ही हैं. अगर गाड़ी नहीं मिलती है तो पैदल जाते हैं. रास्ते में कोई मिला (जान या अंजान) तो वो अपने साथ ले जाते हैं.'
खेती ही है आजीविका का एकमात्र साधन
इस गांव के लोग किसान हैं. सभी लोग खेती मजदूरी करते हैं. यहां पर ज़्यादातर गेहूं, धान, चरी, मक्का आदि अनाज उपजता है. गांव के परमल बताते हैं कि हम कई पीढ़ियों से यहां खेती ही करते आए हैं. हमारे पास इसके अलावा दूसरा काम नहीं है. हमारे पास जमीन नहीं होगी तो हम क्या करेंगे और कहां जाएँगे? इतना कहते ही उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं. गला भारी हो जाता है.
गांव में सरकारी सुविधा के नाम पर कुछ नहीं है (सभी फोटो- रिजवाना तबस्सुम)
मूर्तियां गांव के आदिवासी 1955 से ही खेतों के मालिकाना हक के लिए संघर्ष कर रहे हैं. 10 लोगों की जान जाने के बाद भी आदिवासी परिवारों को अब तक जमीन का मालिकाना हक नहीं मिला है. उन्हें मिली है तो बस पुलिस चौकी. गांव में पक्की सड़क. लेकिन आदिवासियो की मूल समस्या का समाधान हुए बिना पुलिस चौकी और सड़क के मायने नहीं हैं.
(कल पढ़िए: सूखा हुआ खून दे रहा वारदात की गवाही)
(रिजवाना तबस्सुम स्वतंत्र पत्रकार हैं और वाराणसी में रहती हैं.)