वो कौन था, जिसने हैदराबाद के निजाम की जूती की बाजार में नीलामी शुरू की
वाराणसी के काशी हिंदू विश्वविद्यालय के नाम से शिक्षण संस्थान की स्थापना करने वाले पंडित मदन मोहन मालवीय की आज पुण्यतिथि है.
वाराणसी के काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की स्थापना करने वाले पंडित मदन मोहन मालवीय की आज पुण्यतिथि है. महामना के नाम से मशहूर पंडित मदन मोहन मालवीय एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने केवल इच्छाशक्ति की बदौलत ही एक ऐसे विश्वविद्यालय की स्थापना कर दी, जो देश-दुनिया में मशहूर है. महामना एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, पत्रकार, वकील और समाज सुधारक थे. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उन्हें महामना की उपाधि दी थी.

जन्म 25 दिसंबर 1861 को आज के प्रयाराज और तत्कालीन इलाहाबाद में पैदा हुए पंडित मदन मोहन मालवीय की शिक्षा-दीक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय में हुई. पढ़ाई पूरी करने के बाद वो शिक्षक बन गए. उन्होंने वकालत भी की और पत्रकारिता भी. देश में शिक्षा का अभाव देख कर उन्होंने 1915 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की.
बीएचयू की स्थापना
महात्मा गांधी भी महामना की दृढ़ संकल्पशक्ति के इतने कायल थे कि वह उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे. महामना, देश की गुलामी की स्थिति से बहुत दुखी थे. उन्होंने करीब 50 सालों तक कांग्रेस से जुड़ कर आजादी की लड़ाई में अपना योगदान दिया. वो ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सविनय अवज्ञा और असहयोग आंदोलन में प्रमुखता से शामिल हुए. भारतवर्ष को आजाद देखने की तमन्ना रखने वाले पंडित मदन मोहन मालवीय का आजादी मिलने से एक साल पहले 12 नवंबर 1946 को निधन हो गया.
महामना के संबंध में एक किस्सा बहुत ही मशहूर है कि किस तरह से उन्होंने हैदराबाद के निजाम को सबक सिखाया था. दरअसल महामना उन दिनों काशी हिंदू विश्वविद्यालय के लिए पूरे देश में घूम-घूम कर चंदा मांग रहे थे. इसी क्रम में वह हैदराबाद के निजाम के पास भी पहुंचे और उनसे विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए आर्थिक सहायता मांगी.

इस पर निजाम ने न केवल साफ इनकार किया बल्कि यहां तक कह दिया कि उन्हें दान में देने के लिए उसके पास केवल जूता ही है. इस पर महामना ने निजाम से उसके जूते ले लिए और बाजार में खडे़ होकर उसको बेंचने लगे.
निजाम को जब इस बात की खबर लगी तो उसने बदनामी के ड़र से महामना को बुलाया और बहुत बड़ी रकम दान में दे कर इज्जत के साथ विदा किया.

ब्रिटिश सरकार में जब अंग्रेजी और फारसी का बोलबाला था, तब पंडित महामना मदन मोहन मालवीय ने इलाहाबाद से हिंदी को राजभाषा बनाने की मुहिम शुरू की थी. उन्होंने 'कोर्ट करैक्टर एंड प्राइमरी एजुकेशन' नाम की एक किताब लिखी. दरअसल यह हिंदी के विरोध में उठने वाले सवालों का जवाब था. उन्होंने इसे तत्कालीन हुकूमत के समक्ष दस्तावेज के रूप में पेश किया. इस किताब के सामने आने के बाद तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने 18 जनवरी, 1900 से हिंदी की देवनागरी लिपि का दर्जा दे दिया.