एससी वर्ग के लोगों के हालात पर मद्रास हाई कोर्ट की टिप्पणी के बाद देश में दलितों की स्थित पर राजेश कुमार आर्य का ब्लॉग.
बीते हफ्ते आई मद्रास हाई कोर्ट की एक टिप्पणी की आजकल बहुत चर्चा हो रही है. अदालत ने कहा था, ''सदियों तक हमने एससी-एसी के लोगों के साथ खराब व्यवहार किया. आज भी उनके साथ ठीक व्यवहार नहीं हो रहा है. उनके पास पर्याप्त मूलभूत सुविधाएं तक नहीं हैं. इसके लिए हमें अपना सिर शर्म से झुका लेना चाहिए.''

मद्रास हाई कोर्ट ने तमिल दैनिक 'दिनाकरन' में प्रकाशित एक खबर का स्वत: संज्ञान लेते हुए यह टिप्पणी की थी.
मद्रास हाई कोर्ट की टिप्पणी
'दिनाकरन' अखबार में 21 दिसंबर को प्रकाशित इस खबर के मुताबिक मेलूर तालुका के मरुथुर कॉलोनी में रहने वाले एक दलित परिवार को अपने का अंतिम संस्कार करने के लिए खेतों से गुजरकर कब्रिस्तान तक जाना पड़ा. क्योंकि उनके कब्रिस्तान तक जाने के लिए सड़क नहीं थी.
सुनवाई में अदालत ने कहा, ''अन्य वर्गों की तरह अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों को भी कब्रिस्तान या विश्राम घाट तक पहुंचने के लिए अच्छी सड़कों की सुविधा मिलनी चाहिए. लेकिन इस खबर से पता चलता है कि उनके पास ऐसी सुविधा, अब भी कई जगह नहीं है. इसलिए अदालत ने इस खबर पर खुद संज्ञान लेते हुए इसे जनहित याचिका मानकर सुनवाई की है.''
सुनवाई के दौरान मद्रास हाई कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार के अफसरों से जानना चाहा कि राज्य में एससी के लोगों की कितनी बस्तियां हैं. क्या अनुसूचित जाति की सभी बस्तियों में साफ पानी, स्ट्रीट लाइट, शौचालय, कब्रिस्तान तक पहुचने के लिए सड़क आदि की सुविधा है. इसके अलावा अदालत ने यह भी जानकारी मांगी है कि इस तरह की ऐसी कितनी बस्तियां हैं, जहां कब्रिस्तान तक पहुंचने के लिए सड़क नहीं हैं. इन लोगों को परिजनों के साथ कब्रिस्तान तक पहुंचने की सुविधा मिल सके, इसके लिए अबतक क्या कदम उठाए गए हैं. इस तरह की बस्तियों को साफ पानी, शौचालय, सड़क आदि की सुविधा कबतक मिल जाएगी.

इससे पहले बीते साल तमिलनाडु से ही यह खबर आई थी कि वेल्लोर जिले में एक दलित बुजुर्ग की शव यात्रा को श्मशान घाट तक जाने के लिए सवर्णों ने रास्ता नहीं दिया. इसके बाद बुजुर्ग के परिजनों को उनकी अर्थी को रस्सियों के सहारे पुल से नीचे उतारा और कब्रिस्तान तक लेकर गए. इसका वीडियो उस समय सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था. सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद भी स्थानीय पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने इस तरह की किसी घटना से इनकार किया था.
भारत में दलित
आइए अब नजर डालते हैं कुछ आंकड़ों पर. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में दलितों की कुल आबादी 25 करोड़ 9 लाख 61 हजार 940 है. जनगणना कहती है कि देश की कुल आबादी में 24.4 फीसदी हिस्सेदारी दलितों की है.
दलितों में अनुसूचित जाति (एससी) की जनसंख्या 16 करोड़ 66 लाख 35 हजार 700 है. यह कुल आबादी का 16.2 फीसदी हुआ. जबकि अनुसूचित जनजाति की आबादी 8 करोड़ 43 लाख 26 हजार 240 है. यह देश की कुल जनसंख्या का 8.2 फीसदी है. बीते करीब 10 सालों में एससी-एसटी का जनसंख्या में क्या बदलाव आया है, यग अगली जनगणना से पता चलेगा.

दलितों की आबादी का करीब आधा हिस्सा उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और तमिलनाडु में रहता है. जनगणना के मुताबिक देश के 148 जिलों में इनकी आबादी 49.9 फीसदी तक है, वहीं 271 जिलों में इनकी तादाद 19.9 फीसदी है.
लिंगानुपात के मामले में एसटी के लोग एससी से आगे हैं. एसटी में 1000 पुरुषों पर 975 महिलाएं हैं तो एससी में हर 1000 पुरुषों पर 933 महिलाएं हैं.
अगर एससी-एसटी में साक्षरता की बात करें तो अनुसूचित जाति में साक्षरता दर 66.1 फीसदी है और अनुसूचित जनजाति में साक्षरता की दर करीब 59 फीसदी है. लेकिन एसटी के केवल 15.29 फीसदी बच्चे ही प्राथमिक शिक्षा के लिए स्कूल तक जा पाते हैं.
आरक्षण का प्रावधान
संसदीय राजनीति में एससी-एसटी के लिए आरक्षण का प्रावधान है. एससी-एसटी के लोगों के लिए लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में सीटें आरक्षित की गई हैं. 543 सदस्यों वाली लोकसभा में 84 सीटें एससी के लिए और 47 सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं.
इसी तरह देश के अलग-अलग राज्यों में 607 विधानसभा सीटें एससी के लिए और 554 सीटें एसटी वर्ग के लोगों के लिए आरक्षित हैं.
ये तो हुआ आंकड़ा. मैंने यह आंकड़ा इसलिए दिया ताकि यह बताया जा सके कि जिस जमात की आबादी देश की कुल आबादी का करीब एक चौथाई है, वह इस स्वतंत्र देश में किस हालत में रह रहा है. हजारों सालों से हमारे समाज का कितना विकास हुआ है. दिल्ली और राज्यों की राजधानियों से चला विकास रिसकर कितना इस वंचित जमात के पास तक पहुंचा है.

मद्रास हाई कोर्ट ने जिस खबर को पढ़कर यह टिप्पणी की है, वह खबर भारत के अखबारों और टीवी के लिए आमबात है. वैसी खबरें भारतीय मीडिया में आती रहती हैं. लेकिन आप पाएंगे कि ऐसी ईमानदार कोशिशें इस देश में काफी कम संख्या में हुई हैं, जिससे कि 21वीं सदी के दो दशक बीत जाने के बाद भी इस तरह की खबरों का आना कम हो जाए या रुक जाए.
एक और आंकड़ा देखिए. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की कुछ महीने पहले आई सालाना रिपोर्ट के मुताबिक देश की जेलों में इस समय 1 लाख 44 हजार 125 सजायाफ्ता कैदी हैं. इनमें 31 हजार 342 एससी वर्ग के, 19 हजार 698 एसटी वर्ग के, 50 हजार 394 ओबीसी वर्ग के अन्य वर्ग के 42 हजार 691 कैदी हैं. यानि कि जो एससी-एसटी देश की कुल आबादी का करीब 25 फीसदी हैं, जेल के कैदियों में उनकी संख्या करीब 35 फीसदी है. लेकिन न्याय देने वाली न्यायपालिका में इन वर्ग की आबादी नगण्य है. इसका असर आप जेलों में उनकी संख्या पर देख सकते हैं.

ये आंकड़े देश में दलितों की स्थिति को बताने के लिए काफी हैं. लेकिन इस हालात को बदलने के लिए कहीं भी अच्छी और ईमानदार पहल होते हुए नहीं दिख रही है. इसलिए ऐसी खबरें आती रहेंगी. जबतक समाज और सरकार की ओर से दलितों की दशा सुधारने के ईमानदार प्रयास नहीं होंगे, कुछ बदलने वाला नहीं है.